गुरु वन्‍दना

गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरूर्देवो महेश्वर 

गुरुर्साक्षात पारब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः  ।।

वन्दौ गुरुपद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि 

महा मोह तम पुंज, जासु वचन रवि कर निकर ।।

कबीरा हरि के रूठते, गुरु के शरण जाय 

कह कबीर गुरु रूठते, हरि नहिं होत सहाय ।।

जब मैं था तब गुरु नहिं, अब गुरु है मैं नाहि 

प्रेम गली अति संकरी, तामें दोय न समाहि  ।।

 

गुरु कुम्हार शिष् कुम्भ है, गण-गण काढे चोट 

अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट ।।

 

सर्वसिद्धि  प्रदाता   च   संसार-भय  नाशकम्‌  ।
श्रीगुरु-लिंगं*,   परमानंदं,   महामोक्ष-प्रदायकम्‌  ॥
(
गुरु-तत्व-बोधनी)

” गुह्यातिगुह्य गुरु-गरिमा का गान करने वाला यह गोपनीय मंत्र साधकों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष है । इसकी सतत्‌ साधना से ही श्रद्धावान साधक धर्म का मर्म जान पाते हैं और सकल सिद्दियों का ज्ञान प्राप्त कर  सांसारिक भय से मुक्त हो जाते हैं । श्रीगुरुदेव ही अनुग्रह करके जीव को मोक्षजन्य परमानंद का आस्वादन कराते हैं ।”

आधुनिक उन्मुक्त एवं उच्छृंखल सामाजिक-पारिवारिक वितण्डावाद के दौर में मानव अपने मन की शांति और स्वाधीनता को खो बैठा है । स्वार्थ के क्रूर शिकंजे में मनुष्य की हँसी और हसरतें दम तोड़ रही हैं । मानवता की देह पर रिसते हुए कोढ़ की भाँति लोग ‘रिसते रिश्ते’ ढोये जा रहे हैं । चंद श्वासों की मेहमान यह जिंदगी सिर्फ ग़फलत में ही गलती चली जा रही है ।

ऐसे में– ‘जब जागे, तभी सबेरा’– वाली उक्ति को आदर्श मानकर यथाशीघ्र ‘श्रीगुरु-सत्संग’ का आश्रय ले लेना ही समझदारी है । देह का ‘पारण’ और सन्देह का ‘निवारण’ करने वाले ‘श्रीगुरु’ ही हैं । देह में विद्यमान आनन्दस्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करा देने में समर्थ ‘श्रीगुरु’ की प्राप्ति पूर्वसंचित सत्कर्मों का ही फल है ।

मानव की आयु मुट्ठी की रेत की तरह फिसलती जा रही है । अत: आज का ‘प्रमाद’ कल का ‘विषाद’ न बन जाये– इस बात को ध्यान में रखते हुए ‘श्रीगुरु-शरणागति’ के लिए मन का प्रबोधन करें–
का   बरखा  जब   कृषी  सुखाने ।
समय चूकि पुनि का   पछिताने  ।।