एक से अनेक – अनेक से एक

एक से अनेक – अनेक से एक

क.सं. धर्म ग्रन्थ पेज नं. खण्ड/अध्याय विवरण
१. सं. स्कन्द पुराण ७२०

४२६

८७८

आबन्स खण्ड

अबली क्षेत्र

उज्जैन के कल्प कल्प में अनेक नाम पढ़े ! सोचें विचारें …..!
२. सं. नारद विष्णु पुराण ५८८

५९१

उत्तर भाग वाद्रिकाश्रम में विभिन्न तीर्थो की महिमा विष्णु का गरुण को वरदान !

प्रभास क्षेत्र की महिमा तथा उसके अवतार तीर्थों की महिमा !

३. श्रीमद देवी भगवत ९४४

९४६

अ.     ३८ सप्तम स्कन्द चीन ……आदि समस्त क्षेत्र काशी में निहित है !
 ४.` श्रीमद देवी भगवत ८०७ दिव्य सुमेरु पर्वत के शिखर पर इन्द्र लोक वहिन लोक, संयम पुरी, सत्यलोक, कैलाश, बैकुंठ आदि लोक विद्यमान है !

वैकुण्ठ को ही वैष्णव पद कहते है !

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब १२६३ “तीरथ अड़सठ मज्जन नाहीं !”
६. श्री गुरु ग्रन्थ साहिब ३७४ एक अनेक मिल गयो – एक सामना एक
७. सं. स्कंध पुराण ८७८ नागर खण्ड नैमिसारन्य केदार पुष्कर …..सब तीर्थो में स्नान कर लिया …….सेवन करना चाहिए !
८. श्री राम चरित मानस तुलसी कृत बम्बई प्रेस ७८५

७८६

किष्किन्धाकाण्ड एक में अनेक —– भारत वर्ष विचार ग्रन्थ के अनुसार !
९. शब्द संग्रह १९६ भीखा साहिब अद्वेत  कवि खुद एक भूमि आही बासन अनेक ताहि !

रचना विचित्र रंग, गढेहू कुम्हार है !!

नाम एक सोन आस, गहना है द्देत मास

कहूं खरा खोट रूप, हे माहि अधार है !!

फेन बुद बुद अरु लहरी तरंग वहु !

एक जल जानि लीजै, मीठा कहुं खार है

ठग सरकार के बरोही सरकार के

१०. बारहा पुराण ५०९-५१० १५२ अध्याय पृथ्वी में जितने तीर्थ हैं समुद्र, जितने तालाब हैं जनार्दन के शयन करने पर सब मथुरा में जाते है !

मथुरा मंडल में जाकर ………….!

११. बारहा  पुराण ५१० “मेरे माथुर मंडल में गंगा से शत गुना पुण्य वाली यमुना विख्यात है देवी इसमें कोई विचार नहीं करना चाहिए, हे अनथे वहां मेरे गुप्त तीर्थ अनेक होंगे !”

“पंडित जन उस गुहा बुद्धि का गुप्त कारण में वर्तमान नित्य स्वरूप ब्रह्म को देखता है! जिस ब्रह्म में सब जगह एक आश्रय बाला होता है जिस में सब जगत मिलकर एक आश्रय वाला होता है !………………..”

१२. अथर्वेद १२६ सूक्ति ३६ श्लोक १ “पंडित जन उस गुहा बुद्धि का गुप्त कारण में वर्तमान नित्य स्वरूप ब्रह्म को देखता है ! जिस ब्रह्म में सब जगह एक आश्रय बाला होता है जिस में सब जगत मिलकर एक आश्रय वाला होता है !………………..”
१३. कबीर साहिब सम्पूर्ण  बोध सागर स्वसमवेद बोध १२२ सतयुग में ज्ञानी जी का मनुष्य लोक में आगमन सोई सकल जगत गुरु पीरा,

नाम अनेकन ताके तीरा!

देश देश में नाम है न्यारा,

सारे जीव जगत को तारा!!

वेद पुराण जासु गुण गावें,

नाम अनंत जासु निरतावें!

१४. ब्रहम पुराण ४९१ पिप्पल तीर्थ वर्णन १ “सूर्यदेव समस्त जगत के नेत्र हैं

तीन करोड़ पांच सो करोड़ तीर्थ की पुष्टि है! ”

१५. स्वसमवेद बोध १६३ “एक अनेकन है गयौ, पुनि अनेक से एक!

हंस चले सतलोक को, सतनाम की टेक !!

१६. अथर्वेद ४१ अष्टम काण्डम सूक्ति ५ श्लोक ५ तदग्नि राह………… तदिन्द्र: !

ते में देवा ……………प्रति सरैर जन्तु!!

भावार्थ = अग्नि सोम ब्रहस्पति सविता इंद्र देव पुरोहित ……एक ही अनेक रूप में हिंसाओ तथा प्रतिकूल गति वालों को हटावें !

१७. कबीर साहिब शब्दावली ५५१ विश्व रूप सब साथ था,

विश्व रूप यह – होये !

तुझ ही से ही सब कुछ भया,

सब कुछ तुझ ही माहि !

कह कबीर सुन पंडिता,

तेहि ते अनते नाहि !!

१९. अथर्वेद भाष्ये २९२ दशम काण्डम श्लोक १० “यत्र ……………….विदू: !

असच्च ……………. स्वि देव स: !!

भावार्थ = ब्रहम में एक से अनेक ………!!

१९. सामवेद भाष्य श्री तुलसी  राम स्वामी कृत ३४७-३५० तक षष्टाध्याये चतुर्थी दशति ….ग्राम नगरादी सब उसी के भीतर आजाता है ……..!
२०. ब्रह्म सूत्र

शंकर भाष्य

९८. आनंद समधिक

परिभाग

जो भूतों को रचकर, और उनमें प्रविष्ट हो ह्रदय गति बुद्धि कोष रूप गुहा में सर्वान्तर

रूप में स्थित है !

२१. संक्षिप्त ब्रहम वैवर्त

पुराणाक

४७६ श्री कृष्ण जन्म खण्ड १ पार ब्रहम परमात्मा एक है, गुण भेद रूप से ही सदा उस के भिन्न भिन्न रूप होते हैं !

वह ब्रहम तत्व एक होने पर भी अनेक प्रकार का है! शिव सगुण भी है और निर्गुण भी !

२२. श्री गुरु ग्रन्थ साहिब ३७९ एकौ एक आदि इक एकै, है सगला- पसारे!
२३. कबीर पंथी शब्दावली ५८० घर अपना हम कीन्ह संसार !
२४. यजर्वेद भाषा भाष्ये ७२ तृतीयोध्याय पृथ्वीव  (विस्तृत भूमि के तुल्य ! भूमि के पृष्ठ के ऊपर भूमि – अंतरिक्ष प्रसिद्ध अग्नि स्थापन करता हूं !
२५. भक्ति सागर चरण दास कृत ६६३ नासकेत लीला “मुरख याका भेद न पाया !

तामें सब ब्रह्माण्ड समाया !!”

२६. यजुर्वेद भाषा भाष्ये १३०

१३१

चतुर्थोध्याय

श्लोक ३०

अनन्त उतम अंतरिक्ष को रचते अच्छे प्रकार प्रकाशित – सब के – अधिपति आप अंतरिक्षके बीच में सब लोकों को स्थापित करते हो !……………
२७. भक्ति मारग ३८१ चेतावनी भेद भेद न पाया पद इंस केरा !

जो सन्तन घर निज डेरा !!

इन लोकों को एक ही जानो !

काल कला से न्यारा मानो !!

सन्तन का यह देश नियारा !

वेद कतेव न पावहि पारा !!

२८. कुरान मजीद ७२१. ३८ सूर साद ३८ काफ़िर कहने लगे यह जादूगर झूठा है ! क्या इतने माबुदों की जगह एक ही माबूद बना दिया

यह तो बड़ी अजीब बात है अपने माबुदों की पूजा ………

पिछले मजहब विद्या नहीं सुनी बनाई हुई बात है ! क्या समी में इस प्रकार नसीयत की किताब उतारी है !

२९ कबीर पंथी शब्दावली ६६७ वसंत ४० “कहां जइये गृह लग्यौ रंग!

ब्रह्म बतावै गुरु आप माहि !!” …………..

अडसठ तीरथ एक द्वार !!

३०. अथर्वेद भाष्ये

मंडल ८

६२५ षष्ठम काण्डम

श्लोक ४

“यो विश्वामि………..भुवना !”

सच ………….. दविष: !!

जो परमेश्वर सब भुवनों को चारों ओर से अलग अलग देखता है ! फिर मिले हुये देखता है ! वह वैरियों को उलांघ कर हमें भरपूर करता करें !!

३१. यजुर्वेद भाषा भाष्ये १०४५ एक त्रियोध्याय

श्लोक ५

३२. मुंडकोपनिषद १० एक के ही जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है !
३३. मुंडकोपनिषद ११२ “ब्रह्म लोक एक होने पर भी अनेकवत देखा !”
३५. ऋग्वेद मं. १० ११५९ सूक्ति १४९

श्लोक १

“प्रर्थिविम …………….विस्तार भूमि !!
३६. सारवचन छन्द बन्द २२८ वचन २६

शब्द – चौथा

“अब चौथे की करी तयारी”

………………………….

धुन मुरली जहां उठत करारी !

तेज पुंज वह देश – मलारी !!

लोक अनंत भक्त जहां बसै!

३७. सारवचन छन्द बन्द ३५८ वचन ३९ “राधास्वामी खेल खिलाया, अनेक रूप जहां एक भयौरी !
३८. तुलसी साहिब शब्दावली भाग १ ९८ जै-जै वंती एरी आली एक तो अचम्भा देखा,

देखा आपने इक ………..

नम मिल के भवन सामना,

ता को है बैराट-बखाना !

३९. ऋग्वेद मं. ७ सूक्ति ६३ मं. ३ श्लोक “————–सामान न प्रमि नाति धाम ! सब का तारक प्रकाश स्वरूप सर्वत्र परिपूर्ण धुलोक का प्रकाशक …..!
४०. ऋग्वेद मं. ५ सूक्ति १ श्लोक ६ हे मनुष्यों मद में प्रदीप्त ……!

यज्ञ करता बलवान, कवि अनेक ….

श्रद्धा व बहुत स्थानों वाला …….!

४१. ऋग्वेद मं. ७ ८९४ सूक्ति ३९ श्लोक ३ बहुत जाने सुधाचरण करने वाले ……………………विद्याओं को सुनो !
४२. ललिता सह्स्नाम ५९५ द्वादसी क्षमारण्य कला “तिर्थन्तरे ग्रह नेतु  धुलोक गतान्येव सर्व तीर्थानि मासेरन!”
४३. प्रेम सागर ८४. अध्याय ३६ अरिस्तासुर उद्धार, कंस का अक्रूर के पास जाना “सब तीर्थो को मैं ब्रज में बुलाए लेता हूं!”
४४. श्रीमद्भागवत भाग १ ५४ अ.     ३ तृतीयोध्याय “स्रष्टि के आदि में …”
४५. अथर्वेद भाष्ये ४६७ खण्ड पंचम कांड सूक्ति ३ श्लोक ३ उरु लोकम विस्तीर्ण लोकों वाला आकाश मेरा होवे पवन मेरे हित –चले !
४६. अथर्वेद भाष्ये ८२४ सूक्ति ६२ श्लोक १ “पृथ्वी में नाभि पर स्थापित किया हुआ – प्रथि व्याम!”
४७. अथर्वेद भाष्ये ६०८ सूक्ति २१ श्लोक १ “उत्तम विस्तृत लोक विस्तार के ऊपर भय नाशक ब्रह्म को मैंने अवश्य यथावत ग्रहण किया है !”
४८. सारवचन छंद बन्द ३४० वचन १८ शब्द १२ “सत्संग करत बहुत दिन बीतो !

अब तो गुरु को लो पहिचान !!

उन्ही को गुरु नानक जान !

वही कबीर वही सतनाम !!

सब सन्तन को महीं पिछान !

……………………………..!!

४९. यजुर्वेद भाषा भाष्ये ६७३ अष्टादशोध्याय

श्लोक ६०

एक साथ स्थान वाले परमात्मा को जानो, जो आकाश में व्याप्त हैं ……!
५०. यजुर्वेद भाषा भाष्ये १११९ चतुरित्रशोध्याय श्लोक १५ इडायास्त्या पदे वयं नमो पृथिव्याम अधि !

…..विस्तृत भूमि के मध्य भाग में

५१. यजुर्वेद भाषा भाष्ये १६१ पंचमो अध्याय

श्लोक ३३.

एक पैर में विश्व !
५२. यजुर्वेद भाषा भाष्ये १३०. चतुर्थोध्याय

श्लोक ३०

अंतरिक्षके बीच में सब लोकों की स्थापना करने वाले है !                                                                                                                …………….अपने आप प्रकाश मान !
५३. गोपथ ब्राह्मण ३२१ उतर भागे प्र. २ क.६ देवासुर संग्राम में …..यज्ञ द्वारा देवताओं की विजय !

असुरों ने नगर लड़कर सुवर्ण बाली पृथ्वी (सब लोकों वाली )…………….असुरों को हरावे !

सदन-स्थानम ! असुरों को लोकों से मर निकलना !

५४. अथर्ववेद भाष्ये २८८ सूक्ति २०

श्लोक ८

“वाजस्य ………………….भुवनान्यन्त: !!

उतादित्सनां……………………….यच्छ !!

बल की उत्पत्ति में ही ……….सब लोक उसी के भीतर है !

५५. भाव–प्रकाश वैध-किताब ऊपोद्दात: “अहं संहर दरिबलं………….सकल लोकता

तरणिरिव……………….जगमंडल हरेर्नाम !!

५६. वैदिक सम्पति ५६२ – ५२८ तक चित पावन और आर्य शास्त्र “अल्ल: प्रथिव्यां अंतरिक्षय – विश्व रूप ! ”
५७. अल्लोपनिषद ५२९ चित पावन आर्य शास्त्र “अल्ल: प्रथिव्यां अंतरिक्षम – विश्व रूप ! ”  ७
५८. छान्दोग्य उपनिषद द्वतीय ! द हर ब्रहम की उपासना का फल !

संकल्प से सभी लोकों की भोग की उपस्थित होना !

५९. उपदेश-दर्शन

श्री जी महाराज

१३० राम कृष्ण हरिनाम में,

भेद अभेद न कोय !

पार करन को परसुराम,

परम पोतप्रभु –सोइ !!

६०. प्राण संगली १३५ अध्याय २१ “बड़ी बड़ा बड मेदिनी,

हउमें करि करि जाय !

६१. कल्याण उपनिषद अंक ६७७ खण्ड ३ एक ही देव बहुत प्रकार से प्रविष्ट होकर –स्वयं अजन्मा रहते हुए भी बहुत प्रकार से प्रकट होता है यही देव नानात्व में व्याप्त है ! वह स्वयं अजन्मा है किन्तु नानात्व श्रृष्टि भी उसी के द्वारा होती है !!
६२. मंडूकोपनिषद २१ आगमप्रकरण “एको देव: सर्व भूतेषु गुढ: !

संपूर्ण भूतों में एक ही देव छिपा हुआ है ”

६३. मंडूकोपनिषद १२१ ब्रह्मलोक एक में अनेक !
६४. मंडूकोपनिषद १३९ इन्द्र माया के अनेक रूप धारण करता है इससे भिन्न देश कोई नहीं है !
६५. ब्रज मंडल – परिक्रमा १७७ अरिष्टासुर वधो परान्त- राधा ने कृष्ण से कहा आप को गउ हत्या का पाप लगा है ! पहिले सब तीर्थो को यही बुला लेते है ……………!
६६. सं महाभारत भाग २ १३०९ बन पर्व तीर्थ यात्रा पर्व ! मरुत यज्ञ अनुष्ठान – यहाँ स्नान करके मनुष्य सम्पूर्ण लोकों को प्रत्यक्ष देखता है  पाप से मुक्त हो पवित्र हो जाता है ! ……………अर्जुन भी दिखाई दे रहे हैं ! सरस्वती के दर्शन करके – एक मार्ग पुण्य का ही आश्रय लिये……………..!
६७. सं.स्कन्द पुराण ७२२ आवन्त्य खण्ड अवन्ती क्षेत्र उज्जैनी ………पद्मावती …………!
६८. सामवेद संहिता ५०७ उत्त्रचिर्क “इमामुबनानि ……..” स्वामी –सकल लोक को प्राप्त करता है !
६९. ऋग्वेद मं. ३ ३८५ सूक्ति ३६ श्लोक ४ पुरुष्टि तस्य – धाममी: शतेन मध्यामसि इन्द्रस्य चर्षणी घृत: ! जन्म स्थान असंख्य नामों से प्रशंसित !
७०. श्री महाभारते भाग २ १३०९ वन पर्वाणी “सम्पूर्ण लोकों को प्रत्यक्ष देखने के क्रम में !”
७१. श्री महाभारते भाग २ ११८६ वन पर्वाणी मिश्रक तीर्थ – सब तीर्थों का समिश्रण किया – व्यास ने ऐसा द्विजों के लिए किया !
७२. उपनिषद अंक तेईस वें वर्ष का विशेषांक ३८० सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष सहसृपात स भूमि विश्वतो वृत्यात्यतिश्ठं दर्शान्गुलय
७३. श्री राम चरितमानस

गीता प्रेस गोरखपुर

४६ बाल कांड जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं !

तीरथ सकल तहां चलि आवहिं !!

७४. श्री मद भागवत भाग २ २७१ तृतीयो स्कंध अं.१५ श्लोक ३३ भगवान के उदर में सारा ब्रह्माण्ड स्थित है !
७५. सं. पद्म पुराण ८२ उत्तर खण्ड “मथुरा में सभी तीर्थ विद्यमान !”
७६. ऋग्वेद मं. १० ८२८ सूक्ति ८२ श्लोक ६ “तमिद गर्म प्रथम ……….विश्वे !

अजस्य नामावध्येकं पीतं…….भूवनानि तस्यु:”

७७. सत्यार्थ प्रकाश ३०९ एकादश समुल्लास समान तीर्थ वासी !
७८. ””    ”” ५५७ अथाल्लोप्निषद व्यख्यास्यमं “अल्ल: पर्थिव्या आन्तरिक्षम विश्व रूपं ! ”
७८. चोबीस तीर्थकर

महापुराण

८३ “समस्त लोका लोक – एक साथ दीखते हैं”
७९. यजुर्वेद १३० चतुर्थोध्याय अंतरीक्ष के बीच में सब लोकों को स्थापित करते हो !
८०. ’’ ” ६७३ श्लोक ३०
८१. ब्रह्माण्ड पुराण भाग २ ५३ गंगा का पृथ्वी पर आगमन ! स्वर्ग – यही सब क्षेत्रों में उत्तम क्षेत्र है यह सब तीर्थों का निकेतन है !
८२. ऋग्वेद पुरातन २११ सूक्ति १६३ श्लोक १३ तेरहवां वर्ग “सध स्मतम” एक साथ के स्थान को मातरम् – उत्पन करने वाली माता !
८३. ””   ”” २१२ सूक्ति १६४ श्लोक ३ “चक्राकार” जहां समस्त लोक लोकांतर स्थित रहते हैं !
८४. यजुर्वेद भाषा भाष्ये १०५० ३१ अध्याय श्लोक १९ गर्भस्थ जीवात्मा – परकाया प्रवेश परमात्मा हैं जो लोक लोकांतर स्थित है !
८५. सं. नारद विष्णु पुराण ६२१ प्रथम अंक चोबीस तत्वों के साथ जगत उत्पति ! श्रृष्टिकाल में नाना रूप प्रकट उस रूपांतर का नाम ही प्रकट करता है !
८६. श्रीमद देवी भागवत महापुराण ९०८ अध्याय ३० षष्ठम स्कन्ध

श्लोक १६

उपयुक्त स्थान – सारा जगत !

“सच्चिदानन्द रूपं वा स्थानम् सर्व

जगन्मय ………….युष्मामि: सर्वदा

चाहं पूज्या ध्येया च सर्वदा !” १६